परमात्मा ने इस सृष्टि का निर्माण अपने अनंत आनंद को बाँटने के लिए ही तो किया है। गुरु जब शक्तिपात करते हैं मन के भीतर से जन्मों के कितने ही संस्कार बह कर निकल जाते हैं। अश्रु के सहारे हमारे सुख-दुख का अतिरेक बह जाता है। मन जब शांत होता है तब आत्मा का प्रतिबिंब उसमें स्पष्ट दिखता है, वह अनंत का अनुभव करता है। वह आनंद बँटना चाहता है। स्वप्न में हम सुख-दुख दोनों का अनुभव करते हैं। मन एक मायानगरी का निर्माण कर लेता है। सुख का आभास होता रहे तो स्वप्न चलता रहता है, समय का भान नहीं होता, फिर अचानक कुछ ऐसी बात घटती है जो हमें विचलित कर देती है तो हम जाग जाते हैं और राहत की श्वास लेते हैं कि यह मात्र स्वप्न ही था। इसके बावजूद भी स्वप्न का असर कुछ देर तक बना रह सकता है। जागृत में भी यदि सब कुछ ठीक चल रहा है, हमारे अनुकूल है तब तक हम हम भीतर नहीं मुड़ते हैं। परमात्मा को नहीं पुकारते, जब दुख बढ़ जाये तब आर्त्त पुकार उठती है और आत्मशक्ति बढ़ाने की तरफ़ कदम बढ़ता है। जैसे स्वप्न मिथ्या है, वैसे ही जागृत भी मिथ्या है। इसे देखने वाला साक्षी सत्य है, जो सदा जागृत है, नित्य है, मुक्त है। वह स्वयं को भूल जाता है और और कभी देह, मन, बुद्धि के साथ एक होकर स्वयं को वही मानने लगता है। देह के पास अपनी शक्ति है, मन के पास मनन की व बुद्धि के पास निश्चय की शक्ति है पर आत्मा के होने से ही वे इसका अनुभव कर पाते हैं।
मैं बहुत दिनों बाद आपके कम्मेंट बॉक्स पर आया हूँ। लेकिन आपकी पोस्ट हमेशा पढ़ता हूं। टिप्पणी नहीं कर पाता हूं। इसके लिए माफी। आपका लिखा अदभुत होता है हर बार की तरह..... सादर....
ReplyDeleteस्वागत व आभार, आप पढ़ते हैं इतना ही पर्याप्त है।
Deleteबहुत सटीक सार्थक एवं सारगर्भित सृजन ।
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏
स्वागत व आभार सुधा जी !
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