संत कहते हैं, मन को विकारों का ही तो बंधन है, हम जो मुक्ति की बात करते हैं, वह मुक्ति विकारों से ही तो चाहिए. यदि धर्म धारण किया है तो विकार धीरे-धीरे ही सही पर निकलने शुरू हो जाते हैं. यदि नहीं होते अथवा बढ़ते हैं तो ऐसा धर्म किस काम का ? केवल पाठ करने या धार्मिक चर्चा करने मात्र से हम धार्मिक नहीं हो जाते. राग-द्वेष सब विकारों की जड़ हैं। वीतरागी तथा वीतद्वेषी होने के लिये मन पर संस्कारों की गहरी लकीर नहीं पड़नी चाहिए. हृदय से मैत्री व करुणा की धारा बहने लगे तो शीघ्र ही मन निर्द्वन्द्व हो जाता है. ऐसा तब होता है जब मन ध्यानस्थ होने लगता है। मन की गहराई में मैत्री व करुणा का साम्राज्य है, पर मन उसके प्रवाह में रोड़े अटकाता है, जब मन न रहे तभी अमन अर्थात शांति का अनुभव होता है।
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