हम चिंता तो करते हैं पर चिंतन से घबराते हैं, ऐसे चिंतन से जो हमें हमारे भीतर की कमियों को दिखाए. हम उस दर्पण में देखना नहीं चाहते जो हमें वैसा ही दिखलाये जैसे हम वास्तव में हैं। जो हम जानते हैं वह सरल है पर उसी को पढ़ते-गुनते रहना ही तो हमें आगे बढने से रोकता है. जब कोई हमें अपमानित करता है तब वह हमारा दर्पण होता है, हमरी प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हमारे भीतर कितनी समता आयी है। प्रभु से प्रार्थना है कि वह उसे हमारे निकट रखे ताकि हम वही न रहते रहें जो हैं बल्कि बेहतर बनें. स्वयं की प्रगति ही जगत की प्रगति का आधार है, हम भी तो इस जगत का ही भाग हैं. हम यानि, देह, मन, बुद्धि, आत्मा तो पूर्ण है उसी को लक्ष्य करके आगे बढ़ना है. उसी की ओर चलना है चलने की शक्ति भी उसी से लेनी है. आत्मा हमारी निकटतम है हमारी बुद्धि यदि उसका आश्रय ले तो वह उसे सक्षम बनाती है अन्यथा उद्दंड हो जाती है. आत्मा का आश्रित होने से मन भी फलता फूलता है, प्रफ्फुलित मन जब जगत के साथ व्यवहार करता है तो कृपणता नहीं दिखाता समृद्धि फैलाता है. जीवन तब एक शांत जलधारा की तरह आगे बढ़ता जाता है. तटों को हर-भरा करता हुआ, प्यासों की प्यास बुझाता हुआ, शीतलता प्रदान करता हुआ, जीवन स्वयं में एक बेशकीमती उपहार है, उपहार को सहेजना भी तो है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (26-01-2023) को "आम-नीम जामुन बौराया" (चर्चा-अंक 4637) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
Deleteसत्य वचन
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
Deleteबहुत खूब !!
ReplyDeleteस्वागत व आभार रूपा जी!
Deleteस्वयं को सहेजने और परिष्कृत करते रहने पर क्या खूबही लिखा है अनीता जी आपने, बसंत आगमन की आपको ढेर सारी शुभकामनायें
ReplyDeleteस्वागत व आभार अलकनंदा जी!
Deleteआदरणीया अनीता जी ! वन्दे मातरम !
ReplyDeleteचिंता और चिंतन को उपलक्षित , सुन्दर शिक्षाप्रद , उत्तम आलेख के लिए अभिनन्दन !
आपको बसंत पर्व एवं गणोत्सव की हार्दिक शुभकामनाए !
जय हिन्द ! जय श्री कृष्ण जी !
जय श्री कृष्ण! स्वागत व आभार !
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