जीवन एक पाठशाला ही तो है, जहां हर कदम पर हमें सीखना होता है। किसी की उम्र चाहे कितनी हो, वह बालक हो या वृद्ध, सीखने की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कोई भी यहाँ पूर्ण नहीं है, पूर्णता की ओर बढ़ रहा है। अहंकार का स्वभाव है वह स्वयं को पूर्ण मानता है, अत: व्यक्ति सीखना बंद कर देता है; और अपने को मिथ्या ही पूर्ण मानता है। ऐसे में उसके भीतर एक कटुता, कठोरता तथा दुख का जन्म होता है। सीखते रहने की प्रवृत्ति उसे बालसुलभ कोमलता प्रदान करती है। बच्चे जैसा लचीला स्वभाव हो तभी हम आनंद के राज्य में प्रवेश पा सकते हैं। प्रकृति या अस्तित्त्व हमें ऐसी परिस्थितियों में रखते हैं, जहां अहंकार को चोट पहुँचे। यदि दुख का अनुभव अब भी होता है, शिकायत का भाव बना हुआ है अहंकार का साम्राज्य बना हुआ है। स्वाभिमान जगा नहीं है। स्वाभिमान में व्यक्ति अपने प्रेमस्वरूप होने का अनुभव करता है। वहाँ कोई दूसरा है ही नहीं। कृतज्ञता की भावना से वह भरा रहता है। जो उसे कटु वचन कह रहा है मानो वह उसकी परीक्षा ले रहा है, मानो परमात्मा ने उसे वहाँ रखा हुआ है। जब मन कृतज्ञता से भरा हो तो उसमें कैसी पीड़ा ! हर श्वास जब परमात्मा की कृपा से मिली है तब जिस परिस्थिति में रखा जाये वह किसी बड़ी योजना का भाग है ऐसा मानना होगा। यह सृष्टि किसी विशाल आयोजन की तरह किसी शक्ति द्वारा चलायी जा रही है, यहाँ यदि हम स्वयं को जानकर उसमें परमात्मा के सहायक बनना चाहते हैं तो हमें विनम्र होना सीखना होगा, यह पहली सीढ़ी है।
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