सितम्बर २००४
जाग्रत, सुषुप्ति तथा स्वप्न ये तीनों अवस्थाएं हम देखते हैं,
जाग्रत को देखने वाला मन स्वप्न में बदल जाता है, नींद में वही सो जाता है. जैसे
एक रात्रि को देखे स्वप्न का दूसरी रात्रि को देखे स्वप्न से कोई संबंध नहीं रहता,
वैसे ही एक दिन की जाग्रत अवस्था को देखने वाले मन का दूसरे दिन के मन से कोई
संबंध नहीं रहता, अज्ञानवश ही हम दोनों को एक मानते हैं. उसे एक बनाया है उस अखंड
चैतन्य ने जो माला के धागे की तरह छिपा रहता है, और फूलों को देखकर हम उन्हें एक
ही सत्ता मानते हैं, जबकि फूल भिन्न-भिन्न हैं. हमारे जीवन को एकत्व प्रदान करने
वाली जो सत्ता है यदि हम निरंतर उसके साथ ही रहें तो इस भेद से मुक्त हो सकते हैं.
एक में रहकर अनेक को देखा जा सकता है, पर अनेक में रहकर एक को नहीं देखा जा सकता.
यदि हम नित्य-निरंतर एक ही भाव में स्थित रहें तो बदलने वाला यह जगत हमें प्रभावित
नहीं कर सकता. इसके लिए हमें भूत और भविष्य दोनों को त्यागना होगा, वर्तमान में
रहकर उस एक से जुड़े रहना सम्भव है. तब जो शेष रहता है वह है आनन्द और भीतर का मौन.
तब जो शेष रहता है वह है आनन्द और भीतर का मौन....
ReplyDeleteवर्तमान में रहकर उस एक से जुड़े रहना सम्भव है. तब जो शेष रहता है वह है आनन्द और भीतर का मौन.
ReplyDeleteएक शाश्वत सत्य
अच्छी विवेचना
ReplyDeleteराहुल जी, रमाकांत जी व राजेश जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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