हमारे जीवन में सुख-दुःख तो दिन-रात की तरह आते ही रहते हैं पर
जैसे हम दिन-रात को अप्रभावित हुए देखते
हैं, वैसे ही जब सुख-दुःख से अप्रभावित रहना सीख जाते हैं, तभी सहज जीवन का आरम्भ
होता है. तब जगत हमारे लिए होकर भी नहीं रहता, उसका वियोग या संयोग हमारे आनन्द
में बाधा नहीं देता. कोई भी बंधन हमें तब त्याज्य लगता है. मन तब भीतर टिकना सीख
लेता है और नित्य नवीन रस का अनुभव करता है. किन्तु समता की इस स्थिति को प्राप्त
करने के लिए आवश्यक है नियमित साधना. जीवन इस संसार रूपी कर्मक्षेत्र में स्वयं को
निखारने के लिए ही मिला है, सोने को तपकर उसमें से अशुद्धियाँ निकाली जाती हैं,
वैसे ही भीतर ज्ञान और योग की अग्नि में तपकर ही समता का रस प्रकटता है.
bahut sundar aur gyanvardhak bhi .
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ४ /६/१३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का वहां हार्दिक स्वागत है ।
ReplyDeleteराजेश जी, हार्दिक आभार !
Deleteउत्तम विचार
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचारों का ज्ञान देती प्रस्तुति,,,
ReplyDeleterecent post : ऐसी गजल गाता नही,
बहुत ही उत्तम विचार
ReplyDeleteअनुकरनीय विचार !
ReplyDeletelatest post मंत्री बनू मैं
LATEST POSTअनुभूति : विविधा ३
अनुपमा जी, कालीपद जी, धीरेन्द्र जी, वन्दना जी, राजेश जी आप सभी का स्वागत व आभार!
ReplyDeleteजीवन इस संसार रूपी कर्मक्षेत्र में स्वयं को निखारने के लिए ही मिला है....
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