अक्तूबर २००४
कभी-कभी ऐसा लगता है, कितना समय यूँ ही बीता जा रहा है, हम वहीं के
वहीं खड़े हैं, सांसें व्यर्थ जा रही है, जिसकी तलाश में हम निकले थे वह अब भी दूर
ही है, शायद यह तलाश कभी खत्म होती भी नहीं, हिमालय से निकल कर गंगा नदी समुद्र से
मिलने के लिए जो रास्ता तय करती है वह कभी नहीं कर पाती, निरंतर बहती ही रहती है.
यदि सारी की सारी नदी एक ही बार में सागर में मिल जाये तो नदी का प्रवाह ही रुक
जाये. ऐसा ही हमारा जीवन है, सदा आगे बढ़ने का नाम ही जीवन है, हम कुछ भी करें,
सोना, जागना, खाना, पीना, सोचना, लिखना, पढना सभी कुछ उसी एक की खोज में सहायक ही
है. हमारी यात्रा बाहर से भीतर की ओर है, जीवन भर अपने साथ रहते हुए भी हम स्वयं
को नहीं जान पाते, हमारी खोज का केंद्र यद्यपि भीतर ही है, पर विचार, भावनायें,
विकार, अहंकार और क्रोध की परतें उसे हमसे दूर किये रहते हैं. हमारा मिथ्या
व्यक्तित्व उस सच्चे निर्दोष, सहज स्वरूप को ढके रहता है, हम उस निष्पाप सहज
स्वरूप को बाहर लाने से डरते हैं, हम जगत के व्यवहार से परिचित हो चुके हैं, उसका
असर हम पर तभी तक पड़ता है जब तक सत्य का पता नहीं चलता, एक बार मन का दर्पण स्वच्छ
हो जाने पर सारी जिम्मेदारी हमारी है, हम यदि चाहें तो सत्य का साथ दें और चाहें
तो यूँ ही माया जाल में फंसे रहें.
जीवन है चलने का नाम चलते रहो सुबहो शाम,,,,
ReplyDeleterecent post : मैनें अपने कल को देखा,
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ११ /६ /१ ३ के विशेष चर्चा मंच में शाम को राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी वहां आपका स्वागत है
ReplyDeleteयदि सारी की सारी नदी एक ही बार में सागर में मिल जाये तो नदी का प्रवाह ही रुक जाये.
ReplyDeleteऐसा ही हमारा जीवन है, सदा आगे बढ़ने का नाम ही जीवन है
व्यापक दृष्टिकोण
धीरेन्द्र जी, राजेश जी व रमाकांत जी, स्वागत व आभार !
ReplyDeleteजीवन के प्रवाह में रुकना नहीं .. सार्थक सन्देश ...
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