परमात्मा को पाकर हमें आनंद मिलता है, यह नया आनन्द है पर इस पर
रुकना नहीं है. हमें आगे जाना है जहाँ आनन्द का सागर है. परमात्मा हीरा है, उसे
केवल आनन्द का स्रोत समझा तो हम वहीं रुक जायेंगे. इस आनन्द को अपना आधार बनाकर
आगे बढना है. इसे असीम तक ले जाना है. वही तो हमारा स्वभाव है. जैसे ही हमारी दुःख
की पकड़ छूटी, भीतर सुख का झरना बहने लगता है. ध्यान से दुःख की चट्टान हट जाती है
और हम अपने स्वाभाविक रूप को पा लेते हैं, आनन्द हमारा स्वभाव है तो परमात्मा
हमारा स्वभाव है ! उसकी झलक तो कई बार
अनायास ही मिलती है क्योंकि वह भी तो हमें ढूँढ़ रहा है. कभी-कभी वह हमें पकड़ लेता
है, आविष्ट कर लेता है. पर हमारे मन में कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ वह टिक सके, हम
उसे आया हुआ नहीं देख पाते. हम कई बात ठिठके हैं, पर उसकी व्याख्या करके बात को टाल
देते हैं, जब हम जागेंगे तभी जानेंगे कि परमात्मा तो सदा हमें मिलता रहा है जब
पूर्ण हो जायेंगे तो पुरानी स्मृतियाँ भी ताजी हो जाएँगी कि उसको पाने से पहले कई
बार पाकर खो चुके हैं.
गहरा जीवन दर्शन छुपा है इन शब्दों में ...
ReplyDeleteसको पाने से पहले कई बार पाकर खो चुके हैं......bahut badhiya aur gahri baat anita ji
ReplyDeleteबहुत गहन और सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteप्रभु वह आनन्द - श्रोत हमारा , पायें कैसे सान्निध्य तुम्हारा ।
ReplyDeleteसुन्दर - भक्ति - प्रधान प्रस्तुति ।
अनुभूत सत्य अव्यक्त ही रहता है शब्दातीत बनकर। सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteदिगम्बर जी, राजेन्द्र जी, कैलाश जी, शकुंतला जी, उपासना जी और वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDelete