फरवरी २००७
भक्ति स्वयं प्रकाशित है, वह मणि है, जिसे न हवा का डर है न उसे
जलाने के लिए तेल चाहिए. जैसे ज्ञान के दीपक को जलाने के लिए स्वाध्याय का तेल
चाहिए. अन्य सभी साधनों में भी निरंतर अभ्यास की आवश्यकता हैं क्योंकि साधक स्वयं
पर निर्भर है पर भक्ति में उसका भार स्वयं प्रभु ले लेते हैं. उसे तो बस पूर्ण समर्पण
करना है. जब भक्त पूरी तरह से उन पर निर्भर हो जाता है तब भगवान उसके दोषों की तरफ
नहीं देखते. उसके प्रति प्रेम वह जल है जो त्रितापों से हमें बचाता है. जिसे हम प्रेम करते
हैं उसे सुख मिले भक्त के हृदय में यह भावना दृढ़ होती है तभी उसके भीतर प्रेम नित-नित
बढ़ता जाता है.
प्रेमा भाव की (माधुर्य ),सखा भाव की हो या फिर वात्सल्य भाव लिए हो भक्ति ही वैकुण्ठ में सीट पक्की करती है। तब भक्त को शरीर प्राप्त होता है कृष्ण का संग साथ मिलता है हमेशा के लिए बहुत श्रेष्ठ विचार आपने प्रस्तुत किया है भक्ति की महिमा पर भगवान तो भक्त के दास बन जाते हैं उसका रथ हांकते हैं।
ReplyDeleteस्वागत व आभार वीरू भाई !
ReplyDelete