फरवरी २००७
जो चेतना स्वाधीन है, वह शांत है. जो चेतना पराधीन है वह
बेचैन होती है. चाह हमें पराधीन बनाती है और जो काम हम बिना चाह के करते हैं वह भी
पराधीन चेतना की निशानी है. अहंकार के लिए भी दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है,
आत्मसम्मान के लिए कोई अन्य नहीं चाहिए. भीतर से जो संतोष प्रकट होता है, रंजन की
शक्ति होती है, वही स्वाधीन चेतना से झरती है.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (05.09.2014) को "शिक्षक दिवस" (चर्चा अंक-1727)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteडायरी के पन्नों को जब भी पढता हूँ एक कमाल की सीख मिलती है :)
ReplyDeleteस्वागत है मेरी नवीनतम कविता पर रंगरूट
ReplyDeleteसुन्दर सटीक अनुकरणीय सूक्त शुक्रिया टिप्पणियों के लिए।
वाकई। मगर मुक्त होने पर सुख मिलेगा क्या?
ReplyDeleteमुक्त होकर देखना पड़ेगा..
Deleteराजेन्द्र जी, शास्त्री जी, वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर--सत्य का उदघोष
ReplyDelete