रामचरितमानस में एक जगह शिव उमा से कहते हैं, यह जगत एक सपना है और जो इसका आधार भूत है, वह परम तत्व ही एकमात्र सत्य है। यह जानते हुए भी हम सभी को यह जगत न केवल सत्य प्रतीत होता है, बल्कि अपना भी प्रतीत होता है। पुराणों में कहा गया है शिव समाधिस्थ रहते हैं और आदिशक्ति से यह सारा जगत प्रकट हो रहा है। किन्तु शिव और शक्ति दो नहीं हैं. शिव की शक्ति ही प्रकृति के रूप में व्यक्त हो रही है। नाम और रूप से यह सारा जगत परिपूर्ण है, पर ये दोनों जहाँ से आये हैं, वह शिव की ही शक्ति है। ज्ञान शक्ति भी वहीं से प्रकटी है, जिसे मन यानि इच्छा शक्ति अपने पीछे चलाती है। अहंकार यानि क्रिया शक्ति भी उसी शिव की है पर व्यक्ति स्वयं को स्वतंत्र कर्ता मानकर सुखी-दुखी होता रहता है।ध्यान के जिस क्षण ये तीनों शक्तियां एक होकर अपने मूल स्रोत से जुड़ जाती हैं तो जीवन में भक्ति और श्रद्धा के फूल सहज ही खिलते हैं। तभी साधक यह जान पाता है कि नित्य बदलने वाला जगत कभी मिलता नहीं और जो सदा एक सा है वह शिव स्वरूप आत्मा कभी नष्ट होता नहीं।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-03-2021) को "रंगभरी एकादशी की हार्दिक शुफकामनाएँ" (चर्चा अंक 4015) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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Nice Article i Love Your Post Thanks
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बहुत ही सुंदर भावों से परिपूर्ण तथा अर्थपूर्ण व्याख्या,आपको सादर नमन ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व्याख्या ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर जीवन दर्शन के सत्य को प्रकट करती रचना!
ReplyDeleteइसीलिए ये पंक्तियां याद आ गयीं:
"भवानी शंकरौ बंदे, श्रद्धा विश्वास रुपिणौ।"
साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
बहुत बहुत सुन्दर लेख
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट
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