गोधन,
गजधन, गाजिधन और रतनधन खान,
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान
मन जब संतोष पा लेता
है, तुष्ट हो जाता है, तृप्त हो जाता है, तब संसार उसे नचाता नहीं. अनासक्त होकर
जब हम कर्म करते हैं, तब कर्म बंधन नहीं बनता, कर्म तो हमें करना ही है, कर्म किये
बिना हम क्षण भर भी नहीं रह सकते, प्रसन्न तभी रह सकते हैं जब संतुष्ट रहते हैं,
संतुष्टि अपने आप में सबसे बड़ी सम्पदा है.. कभी कभी ऐसा लगता है, तुष्टि हमें आगे
बढने से रोकती है, किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है, तुष्ट व्यक्ति की सारी ऊर्जा उसके
पास रहती है, वह जिस तरह चाहे उसका उपयोग
कर सकता है, साथ ही इस जगत के सारे कार्यों का लक्ष्य अंततः आनंद प्राप्ति ही है,
तो यदि वह सुन्तुष्टि के रूप में हमें पहले से ही प्राप्त है तो श्रेष्ठ है, संसार
से सुख पाना हो तो उसके आगे-पीछे घूमना पड़ता है, वह सुख क्षणिक होता है, कम-ज्यादा
भी होता रहता है, भीतर का सुख अनवरत है, सहज है, अपना है, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार
है, वह तृप्ति का सुख है, संतोष का सुख
है. ईश्वर का सुख है, आत्मा का सुख है, वह एक बार किसी को मिल जाये तो कभी छिनता
नहीं, वह समाधि का सुख है.
सुन्दर निष्काम कर्म ही चित्त को स्थिरता प्रदान करता है।
ReplyDeleteभीतर का सुख अनवरत है, सहज है, अपना है, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, वह तृप्ति का सुख है, संतोष का सुख है. ईश्वर का सुख है, आत्मा का सुख है, वह एक बार किसी को मिल जाये तो कभी छिनता नहीं, वह समाधि का सुख है.....
ReplyDeleteतृप्ति का सुख है, संतोष का सुख है. ईश्वर का सुख है, आत्मा का सुख है, वह एक बार किसी को मिल जाये तो कभी छिनता नहीं, वह समाधि का सुख है.
ReplyDeleteअद्भुत भाव एक सत्य
" गो-धन गज-धन वाजि-धन ---" मन का संसार निराला है ,कुछ समझ में नहीं आता। मनुष्य अपनी उलझन से कैसे बचे ? कभी- कभी आदर्श धरे रह जाते हैं और मानव मकडी की तरह अपनी समस्याओं में ही उलझ जाता है और बाहर निकल ही नहीं पाता , तब मुश्किल हो जाती है ।
ReplyDeleteशकुंतला जी, जब तक आदर्श और जीवन के मध्य खाई होगी तब तक मन भरमाता ही रहेगा, ध्यान को जीवन का अंग बनाना होगा, आदर्शों को जीना होगा, परमात्मा में अटूट विश्वास रखना होगा, हर समस्या अपना हल छिपाए रहती है, शांत होकर अपने साथ बैठना होगा, गुरु की कृपा का स्मरण करना होगा...
Deleteवीरू भाई, रमाकांत जी व राहुल जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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