मई २००५
किसी
ने कितना सही कहा है, “सुबह का बचपन हँसते देखा, दोपहर की मस्त जवानी, शाम बुढ़ापा
ढलते देखा, रात को खत्म कहानी” अज्ञानता में भी वैराग्य छा जाता है, लेकिन यह
क्षणिक होता है जैसे श्मशान वैराग्य, जब भीतर सत्य की झलक मिल जाती है तो बाहर से
राग अपने आप ही छूट जाता है. वास्तव में तो सत्य सदा ही भीतर है, अज्ञान का आवरण
ही उसे ढके रहता है. लेकिन संसार से वैराग्य होने का अर्थ उसका अनादर नहीं है न ही
उदासीनता, बल्कि उसका सत्यता को जानकर उसके अनुरूप व्यवहार करना है. प्रेमपूर्ण
व्यवहार तो करना है पर फंसना भी नहीं है. यदि हम नित्य को छोड़कर अनित्य पर भरोसा
करते हैं तो हमें धोखा खाना ही पड़ेगा. नित्य पर किया विश्वास हमें नित्य सुख की ओर
ले जाता है. राग हो ईश्वर से और सेवा हो जगत की तो मन खाली रहता है क्योंकि जग से
कुछ लेने की कामना तो है नहीं और ईश्वर को कितना भी भर लो वह तो आकाश की तरह है.
“सुबह का बचपन हँसते देखा, दोपहर की मस्त जवानी, शाम बुढ़ापा ढलते देखा, रात को खत्म कहानी” अज्ञानता में भी वैराग्य छा जाता है,
ReplyDeleteyahi iwan ka saty hai ham mane ya na mane
रमाकांत जी, स्वागत व आभार !
ReplyDelete