मई २००५
“पहाड़
के नीचे की घास बनकर रहो, आंगन में उगा चमेली का वृक्ष बन कर रहो, मुसीबत आने पर
पत्थर की चट्टान बन कर रहो और दीन-दुखियों के लिए शक्कर और गुड़ बन कर रहो”
एक महान कन्नड़ सन्त की
सूक्तियां हैं ये. पहाड़ के नीचे की घास का अर्थ है अहंकार रहित होकर जीना, अहंकार
युक्त मन ही प्रभु से दूर ले जाता है. चमेली का बिरवा अपने घर के साथ-साथ बाहर भी
सुगंध फैलाता है. मन हमें उससे दूर ले जाता है जब हम अपने सुख में किसी अन्य को
शामिल नहीं करते. मन यदि स्वार्थी है तो ही भीरु भी है, निडर, संवेदनशील मन जो दया
से भरा हो किसी भी परिस्थिति में समता बनाये रह सकता है. जितना सम्भव हो सके स्वयं
को सबके लिए उपलब्ध करा सकें तो जीवन अपने आप ही मधुर हो जायेगा, जो स्वयं के लिए
गुड़ है वही तो अन्यों के लिए भी हो सकता है. परमात्मा की राह पर चलने वाले साधक को
तो इतना सजग रहना ही होगा.
अहंकार युक्त मन ही प्रभु से दूर ले जाता है...!
ReplyDeleteRecent post -: सूनापन कितना खलता है.
अति सुन्दर लिखा आपने...
ReplyDelete"मधुराधिपतेरखिलं मधुरं "
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी, राजीव जी, राहुल जी तथा शकुंतला जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर। कौन हैं ये कन्नड़ सन्त?
ReplyDeleteसम्भवतः वस्वेश्वर या फिर अल्लम प्रभु...तमिल के सन्त तिरुवल्लुवर भी कुछ ऐसा ही कहते हैं...
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