अप्रैल २००५
हम सभी का लक्ष्य आनन्द
है, शांति है, प्रेम है, ऐसा प्रेम जो सदा एक सा हो, सतत् आनन्द तथा कभी न छूटने
वाली शांति... और यही हमारा मूल स्वभाव है, प्रभु ने हमारी रचना इन्हीं तत्वों से
की है, पर काल के प्रभाव से हम इस बात को भूल गये हैं और बाहर इन्हीं की खोज करते
हैं, ये कभी तो हमें प्रयत्न पूर्वक मिल जाते हैं कभी छूट जाते हैं, सुख-दुःख के
चक्र में हम निरंतर घूमते रहते हैं. हम सोचते हैं ये ऐसी वस्तुएं हैं जिनके लिए
बड़ा ही श्रम करना पड़ता है, फिर इन्हें पाना होता है. पर ईश्वर अवश्य ही हमारी इस
मूर्खता पर मन ही मन हँसता होगा, वह जब देखता होगा, इनकी प्राप्ति के लिए लोग न
जाने कितने व्रत, उपवास, जप-तप करते हैं, पर अपने स्वभाव में कभी नहीं ठरते. वह
सोचता होगा इन्हें भटक कर अंततः तो घर लौटना ही है. ये जब ईश्वर को भी खोज रहे
होते हैं तो उससे इन्हीं की मांग करना चाहते हैं. ईश्वर, आनन्द, शांति और प्रेम सब
एक के ही अनेक नाम हैं, ये तो हरेक के भीतर हैं पर मानव की दौड़ बाहर ही बाहर है,
भीतर की उसे खबर ही नहीं, भीतर के नाम पर उसके पास कामनाओं से भरा मन है, वही तो
सबसे बड़ी बाधा है भीतर जाने में !
ईश्वर, आनन्द, शांति और प्रेम सब एक के ही अनेक नाम हैं, ये तो हरेक के भीतर है......
ReplyDeleteराहुल जी, स्वागत व आभार !
Deleteक्या दुःख, कोलाहल, शत्रुता से ईश्वर का कोई लेना-देना नहीं? ये हमारे कर्मों के परिणाम! आनंद, शांति और प्रेम ईश्वर की कृपा !
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, दुःख, कोलाहल और शत्रुता मानव के बनाये हुए हैं..परमात्मा के आसपास इनका कोई स्थान नहीं..जिसे कोई क्लेश नहीं वही तो परमात्मा है और वह हमसे दूर नहीं है..
Deleteजो सत्य है चेतन्य है ,ज्ञान है ,आनन्द है वही तो सच्चिदानन्द है। सत -चित -आन्नद। हाँ परमात्मा का एक नाम आनन्द है। आनंद का बेटा आनन्द हूँ मैं (आत्मा ). ब्रह्म ,ईश्वर ,भगवान् सब एक ही है। हमारे हृदय में बाप (परमात्मा )और बेटा (आत्मा )दोनों का एक साथ वास है। उसी से चेतना है। दिक्क्त यह है बेटा बाप की तरफ पीठ किये हुए है और बाहर उसी बाप (आनंद )को ढूंढ रहें हैं। कोई विडंबना सी विडंबना है।
ReplyDeleteसही कहा है आपने, मानव इसी विडम्बना का शिकार है
Deleteअढ़सठ तीरथ भरे घट भीतर तो मैं बाहर क्यों जाऊँ??भटकते ही इसलिए हैं क्योंकि इतनी सी बात नहीं समझ पाते ....!!
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