अप्रैल २००५
हम दुखकार हैं, जैसे
चित्रकार चित्र बनाता है, कुम्भकार घट बनाता है, उसी प्रकार हम जीवन में नित नये दुखों
का निर्माण करते हैं. फिर स्वयं ही सहानुभूति के पात्र बनते हैं, अपनी भी और
दूसरों की भी. परमात्मा के सम्मुख जाकर दुखों से छुड़ाने के लिए प्रार्थना करते
हैं, वह भी सोचता होगा, मैंने तो मानव को समर्थ बनाया है, वह अपनी शक्ति भुलाकर
क्यों दुखी होता है. ईश्वर प्रेम व शांति की मूरत है, जब वह अपनी गरिमा में रह
सकता है तो फिर मानव क्यों नहीं रह सकता. देह, मन, बुद्धि जो हमारे लिए साधन रूप
थे, हमारी सेवा के लिए मिले थे, हमसे सेवा मांगते हैं. शुद्र, वैश्य आदि कोई जन्म
से नहीं होता, जो देह को ही आत्मा मानता है, वह शुद्र है, जो मन, बुद्धि तथा
अहंकार को आत्मा मानते हैं वे क्षत्रिय या वैश्य हो सकते हैं, आत्मा को ही आत्मा
जानने वाला ब्राह्मण है, ब्रह्म को जानने का अधिकारी है, तथा उसके आनन्द को पा
सकता है. ऐसा आनन्द जो कभी घटता-बढ़ता नहीं, जो सापेक्ष नहीं है, जो अनंत मात्रा का
है, जो अनंत काल के लिए है, जिसे पाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, जो हमें सहज ही
प्राप्त है.
ईश्वर प्रेम व शांति की मूरत है, जब वह अपनी गरिमा में रह सकता है तो फिर मानव क्यों नहीं रह सकता....
ReplyDeleteइसी बात को समझने के लिए आज लोगों के पास वक़्त नहीं है....
सही कह रहे हैं आप...आभार!
Deleteअपने सुख-दुख के स्वामी तुम्हीं हो सखे ।अपनी मर्ज़ी से तुमने ये सुख-दुख चखे । अपने कर्मों का फल ही सभी पाते हैं आज़मा लो यही बात सच है सखे ।
ReplyDeleteशकुंतला जी, सत्य वचन !
Deleteवर्ण आश्रम व्यवस्था समाज की बेहतरी के लिए थी कर्म और श्रेश्ठता (ज्ञान )आधारित थी। जन्मना न कोई शूद्र था न क्षत्रिय न वैश्य।
ReplyDeleteवीरू भाई, सही है, समय के साथ वर्ण व्यवस्था विकृत होती गयी है
Deleteकितना सही लिखा है आपने ...अपनी सहजता हम स्वयं ही तो खोटे चले जा रहे हैं ....इतने सरल जीवन को कठिन बनाते हुए परेशान होते हैं ।
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