अप्रैल २००५
साधक
को जीवन में दुःख को पहचानना जरूरी है, पहले उसे स्वीकारना फिर उसे दूर करने की
चेष्टा करनी है. जीवन भर अर्थार्थी ही नहीं बने रहना है. अर्थार्थी से आर्त तथा
आर्त से जिज्ञासु बनना ही पड़ेगा. पग-पग पर जीवन में हमें दुःख मिलता है, हमारा मन
ही सबसे ज्यादा दुःख देता है, इसे जानना अध्यात्म का पहला कदम है. तभी तो हम मन के
पार जायेंगे, मन के पार क्या है यह जिज्ञासा तभी उठती है जब हम मन को समझ जाते
हैं. मन के पार की झलक ध्यान में मिलती है, जब कोई विचार नहीं रहता, वहाँ, जहाँ
कुछ भी नहीं है, वही शून्य है, वही पूर्ण है, वही आत्मा है. इसकी तलाश ही दुखों से
मुक्ति की तलाश है. हम ध्यान सीख लेते हैं तो पुनः पुनः ताजा होकर जगत में लौट आते
हैं. सारा विषाद घुल जाता है, सारी सृष्टि के साथ प्रेम का सम्बन्ध बन जाता है.
एक अकाट्य सत्य
ReplyDeleteसत्य ... शून्य को पाना पूर्ण को पाने का मार्ग है ...
ReplyDeleteदुःख आने का मतलब है दुःख कम हो रहा है। ईश्वर के नज़दीक होतें हैं हम बोनस के रूप में। सुख के पीछे भी दुःख की छाया खड़ी रहती है।
ReplyDeleteरमाकांत जी, दिगम्बर जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !
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