मई २००५
ईश्वर
की बनाई इस सृष्टि में हम उसी के प्रतिनिधि हैं, उसने हमें अपने सा सिरजा है, इस
जगत में हम अमृत पुत्रों के समान निडर, निर्भीक तथा प्रेम भरा जीवन व्यतीत कर सकते
हैं. मोह और प्रमाद के कारण ही हम ऐसा नहीं कर पाते और अपनी अपार क्षमताओं से
वंचित ही रह जाते हैं. वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के साथ स्वयं को एक मानना ही
मोह है. प्रयत्न पूर्वक जो करना चाहिए उसकी विस्मृति ही प्रमाद है. धर्म को जानते
हुए भी उसकी ओर न चलना, अधर्म को जानते हुए भी उससे दूर न जाना भी प्रमाद है. मन व
इन्द्रियों की व्यर्थ चेष्टा का नाम भी प्रमाद है. मोह और प्रमाद से मुक्त हुई
आत्मा ही सतोगुण में स्थित होती है. सात्विकता का फल है निर्मलता, रजोगुण से मोह
बढ़ता है, जिसका फल है दुःख. तमोगुण का फल अज्ञान है. धीरे-धीरे हमें सतोगुण से भी
पार जाना है, क्योकि ये तीनों गुण एक दूसरे में बदलते रहते हैं. कृष्ण कहते हैं
गुणातीत ही उनका सच्चा भक्त है.
वह शक्ति हमें दो दया-निधे कर्तव्य मार्ग पर डट जायें। पर-सेवा पर-उपकार में हम निज जीवन सफल बना जायें ।
ReplyDeleteउत्तम विचार ...!
ReplyDeleteRECENT POST -: मजबूरी गाती है.
कृष्ण कहते हैं गुणातीत ही उनका सच्चा भक्त है....
ReplyDeleteशकुंतला जी, धीरेन्द्र जी व राहुल जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteसुंदर
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