मई २००५
कृष्ण
कहते हैं, दम्भ, दर्प, कुटिलता, कठोरता आदि आसुरी सम्पत्ति के अंतर्गत आते हैं. जो
ज्ञान अभी भीतर ही पाया है, आचरण में नहीं उतरा है, उसका प्रदर्शन करना दम्भ ही
कहा जायेगा. अन्यों के सामने स्वयं को समझदार जान उनके दोष देखने की प्रवृत्ति ही
दर्प है. दूसरों को दुखी देखकर भी अप्रभावित बने रहना ही कठोरता है, और कठोरता तब
आती है जब हृदय सरल नहीं होता. साधना के द्वारा हम इन दुर्गुणों से खुद को मुक्त
रख सकते हैं. कृष्ण यह भी कहते हैं, दैवी सम्पत्ति भी हमारे भीतर है, प्रेम,
शांति, सहजता, सरलता के गुण भी भीतर हैं, उनमें स्थित होकर स्वयं को पूर्ण समझें
तो विकार अपने आप विलीन हो जायेंगे. उनका जोर तभी तक है जब तक शरण नहीं ली, एक बार
शरण में आ जाएँ तो मन प्रेम का अनुभव करने लगता है, प्रेम का गुण सूर्य की तरह है
जिसके उदय होने पर विकार रूपी तारे अस्त हो जाते हैं.
सार्थक सुंदर विचार ।
ReplyDeleteप्रेम और प्रेम बस और कुछ नही
ReplyDeleteप्रेम का गुण सूर्य की तरह है जिसके उदय होने पर विकार रूपी तारे अस्त हो जाते हैं.
ReplyDeleteपरम सत्य के दर्शन
सुंदर प्रेरक विचार ...!
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RECENT POST -: हम पंछी थे एक डाल के.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ज्ञान मस्तिष्क में रखने की नहीं व्यवहार आचरण में उतारने की चीज़ है।
अनुपमा जी, रमाकांत जी, धीरेन्द्र जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !
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