Monday, November 11, 2013

मुक्त हुआ मन भजे परम को

अप्रैल २००५ 
प्रभु प्रेम का महासागर है और मन उस प्रेम की एक लहर है, एक बूंद है, यह मन परमात्मा से मिलकर ही संतुष्टि का अनुभव करता है. जब तक वह उससे दूर है, तो भीतर एक कचोट है उठती है, वह विरह की पीड़ा है, जब वह विरह बढ़ने लगता है, प्रभु को पाने की चाह हमारे भीतर बढ़ने लगती है. जब यह चाह पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है तो परम अपने को प्रकट कर  देता है. तब हमें अपनी आत्मा का परिचय होता है, स्वयं से मिलने के बाद साधक के जीवन में केवल एक ही कार्य शेष रह जाता है, वह है प्रेम, उसके लिए जगत में एक ही वस्तु रह जाती है वह है परमात्मा, ईश्वर और प्रेम दो नहीं हैं, एक के ही दो नाम हैं ठीक उसी तरह जैसे भाग्य और पुरुषार्थ दो नहीं हैं एक हैं, हमारे पूर्व में किया गया कार्य यानि पुरुषार्थ ही वर्तमान में भाग्य बनकर सामने आ जाता है. वैसे ही जीवन में ईश्वर हो तो प्रेम स्वतः ही पनपता है और प्रेम प्रकट हो जाये तो ईश्वर स्वयं ही खींचे चले जाते हैं. मन मयूर तब नृत्य कर उठता है, भीतर कोई रस फूट पड़ता है, मस्ती की लहर हिलोरे लेती है. रोम-रोम में उस राम का नाम प्रतीत होता है. जीवन का शुभारम्भ वास्तव में तभी से होता है, उसके पूर्व तो मन, इन्द्रियों का गुलाम था, सदा अधीन रहता था, पराधीन को सुख कहाँ, जोमुक्त है वही सुखी है, मुक्ति ही भक्ति है.


5 comments:

  1. अपने सुख दुख के स्वामी तुम्हीं हो सखे अपनी मर्जी से तुमने ये सुख-दुख चखे । कर्म का फल तो मिलता है संसार में आज़मा लो यही बात सच है सखे ।

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  2. बहुत सुंदर

    मित्रों कुछ व्यस्तता के चलते मैं काफी समय से
    ब्लाग पर नहीं आ पाया। अब कोशिश होगी कि
    यहां बना रहूं।
    आभार

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  3. प्रभु के विरह में जो रोया उसने पाया ,विरह के लिए प्रेम चाहिए। सुन्दर रचना है।

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  4. धीरेन्द्र जी, शकुंतला जी, महेंद्र जी, वीरू भाई, आप सभी का स्वागत व आभार !

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