अप्रैल २००५
सत्संग से
जीवनमुक्ति मिलती है. सहजता आती है. निर्मोहता, निसंगता तथा स्थिरमन की निश्चलता आती
है. जीवनमुक्ति का अर्थ है अपने आस-पास कोई दुःख का बीज न रह जाये. दिव्य स्पंदनों
का आभा मंडल इतना शांत होता है कि भीतर के विकारों से हमें मुक्ति मिल जाती है.
सारी कड़वाहट खो जाती है, मन खिल उठता है. हम पुनः नये हो जाते हैं. वर्तमान यदि
साधना मय है तो भावी सुंदर होगा ही. इस मन को शुभता से भर कर हमें जगत के लिए
उपहार स्वरूप बनना है न की भार स्वरूप. वह अकारण हितैषी परमात्मा अनंत काल से हमें
प्रेम करता आया है. हम उसे समझ न पायें पर उसके प्रेम को तो अनुभव कर ही सकते हैं
.
कितना दिव्य प्रवाह है आपकी कलम में...एक लम्बे अर्से के बाद मैंने आपकी लगभग सभी पोस्ट पढ़ी...कहने में कोई संकोच नहीं है कि ब्लॉग पर आपको पढ़ना सार्थक हो जाता है...
ReplyDeleteराहुल जी, सद्गुरु और परमात्मा की कृपा की झलक है यह...
Deleteवर्तमान यदि साधना मय है तो भावी सुंदर होगा ही ..... अनुपम भाव संयोजन
ReplyDeleteआभार
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति 29-11-2013 चर्चा मंच-स्वयं को ही उपहार बना लें (चर्चा -1445) पर ।।
ReplyDeleteआभार राजेद्र जी !
Deleteअनोखा और नायाब
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (29-11-2013) को स्वयं को ही उपहार बना लें (चर्चा -1446) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी, बहुत बहुत आभार !
Deleteसंसर्गजादोषगुणा: भवन्ति ।
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