अप्रैल २००५
हम सोचते हैं कि मन सध
गया, पर यह सूक्ष्मरूप से अहंकार को सम्भाले रहता है. देहात्म बुद्धि में रहने पर
मन हावी हो जाता है. आत्मा में जो स्थित हो गया उसे कोई बात विचलित नहीं कर सकती.
जगत में रहकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह अलिप्त रह सकता है. वह अपनी
मस्ती में रहता है, परम की स्मृति उसे प्रफ्फुलित किये रहती है. आनन्द का एक स्रोत
उसके भीतर निरंतर बहता रहता है, एक पल के लिए भी यदि उसमें अवरोध हो तो उसे
स्वीकार नहीं होता. एक क्षण के लिए भी मन में छाया विकार उसे व्यथित कर देता है. जगत
उसके लिए परमात्मा को पाने का साधन मात्र बन जाता है. वह खुद को जगत के लिए उपयोगी
बनाने का प्रयत्न करता है. वह प्रेम ही हो जाता है.
विदेह होना पड़ता है इस देहातीत प्रेम में।
ReplyDeleteविदेह होना पड़ता है इस देहातीत प्रेम में। काया तो माया है ,कायिक संबंध भी ,अनुबंध भी।
ReplyDeleteसार्थक और सारगर्भित कथन .....!!आभार ।
ReplyDeleteबनी रहे वह स्मृति पल पल
ReplyDeleteBEHATARIN MARG DARSHAN DETI
वीरू भाई, अनुपमा जी ,रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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