मार्च २००५
हमारे
मन में न जाने कितने प्रकार के भय छिपे हैं, चेतन मन के भय दिख जाते हैं, अचेतन मन
के भय जो छिपे रहते हैं कभी-कभी उभर कर सताते हैं. मृत्यु का भय तो मूल है. हम
जानते नहीं कि जन्म के साथ ही मृत्यु शुरू हो जाती है, धीरे-धीरे हम सभी उसका
ग्रास बनने की तैयारी में हैं, यह जीवन जो ऊपरी तौर पर स्थायी प्रतीत होता है,
कहाँ स्थायी है, हर क्षण बदल रहा है, हमारी सोच भी बदलती है. प्रियजनों से बिछड़ने
का भय हो या अकेलेपन का भय उसी को सताता है जो अपने भीतर नहीं गया, भीतर प्रेम का
एक अजस्र स्रोत बह रहा है उसे पा लेने के बाद जगत में रहकर भी साधक अपने आप में
रहता है, आत्मा में ही संतुष्ट रहता है. जगत उसके लिए कुछ करे ऐसी उसकी आकांक्षा
नहीं रहती, वह स्वयं जगत के लिए क्या करे, यही भाव उसमें प्रबल रहता है. उसका होना
एक फूल के समान होता है, उसमे सिर्फ लुटाने की चाह है, अपना सब कुछ खाली कर देने
की चाह, क्योंकि खाली मन में ही उसके प्रियतम का आगमन होगा, वह सदा प्रतीक्षारत
रहता है जगत की नहीं जगदीश की.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11-10-2013) को " चिट़ठी मेरे नाम की (चर्चा -1395)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
ReplyDeleteनवरात्रि और विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें
राजेन्द्र जी, बहुत बहुत आभार !
Deleteबहुत सुंदर बात ....आभार अनीता जी ...!!नवरात्र की शुभकामनायें ....!!
ReplyDeleteआपको भी नवरात्र की शुभकामनायें..
Deleteआपके इस प्रेरणापद लेख ने एक बिसरी हुई कविता की पंक्तियाँ याद दिला दीं , प्राणों में जो प्रेम की प्रतिष्ठा एक बार हुई प्राण छल छंद के विकार तजने लगे. नवरात्री की शुभकामनाओं के साथ सादर नमन !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा शनिवार 12/10/2013 को त्यौहार और खुशियों पर सभी का हक़ है.. ( हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल : 023)
- पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....
आभार, उपासना जी.
Deleteबहुत सुंदर बात कही आपने..
ReplyDeleteसही बात कही आपने |
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- मेरी चाहत