Thursday, November 25, 2021

स्वयं में जो भी टिकना जाने

जैसे जब जरूरत पड़ती है, हम तन का उपयोग करते हैं और जब जरूरत नहीं होती तब शांत होकर बैठ जाते हैं वैसे ही विचार करने की जरूरत हो तभी मन का उपयोग करें तो मनसा कर्म नहीं होंगे. जब तक हम द्रष्टा में सहज रूप से नहीं रहते, तब तक मन की ग्रन्थि बनी रहती है और व्यर्थ ही मन विचार करता है. आत्मा में रहना ही सुख से रहना है, निर्भय और निर्वैर रहना है, निर्विकल्प होकर रहना है ! पर आत्मा में रहना पल भर को ही होता है, जाने कहाँ से मन हावी हो जाता है, मन में जैसे कोई गहरा कुआँ हो जिसमें से विचार निकलते ही आते हैं, कभी इधर के कभी उधर के, कभी काम के कभी व्यर्थ के विचार, जो कभी तन को भी पीड़ित करते हैं मन को भी। आखिर मन चाहता क्या है ?  वह स्वयं को आहत कर कैसे सुखी हो सकता है. वह स्वयं ही नकारात्मक भाव जगाता है फिर बिंधता है, उसे क्यों नहीं समझ में आता ? पर वह तो जड़ है, आत्मा ही चेतन है, यदि आत्मा असजग रहे तो मन इसी तरह करता रहेगा. सजग हमें स्वयं को होना है, हम जो मन से परे हैं. हम नादान बच्चे को घातक हथियार हाथ में लिए देखें तो क्या उसे रोकते नहीं, हम क्यों सो जाते हैं जब मन मनमानी करता है. हमें अपने आप पर भरोसा नहीं, तभी तो ईश्वर को पुकारते हैं. ईश्वर हँसते होंगे, उन्होंने तो हमें निज स्वरूप में ही रचा है. वह कहते होंगे पुकारने से पहले एक नजर खुद पर भी डाल ली होती !


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