काव्य कल्पना की वायवीय उड़ान है तो गद्य वस्तविकता की ठोस भूमि पर चलना। दोनों के क्षण मानव के जीवन में आते रहते हैं। किसी अनोखे आनंद को पाकर, कुछ ऐसा जानकर जो पहले कभी जाना नहीं गया था अथवा कुछ ऐसा जानकर जो इस जगत का भी जान नहीं पड़ता, मन उस अलौकिक लोक में विचरण करता है। उस रस को व्यक्त करना गद्य में सम्भव ही नहीं है। वह इतना सूक्ष्म है कि शब्दों में भी नहीं समाता, तब कुछ परिचित शब्दों में उसे बहाया जाता है जैसे भूमि पर कोई लकीर खींच दे और बहता हुआ जल उधर की तरफ़ बह जाए। कवि केवल उस अनाम अनुभव को एक रास्ता देता है और वह जो उसके मन को घेरे हुए था, वह ऊर्जा शब्दों के रूप में बह जाती है। शब्द ऊर्जा ही तो हैं, जिनमें भावों का परिवर्तन होता है, फिर वे स्थित हो जाते हैं। गतिमय ऊर्जा स्थाई हो जाती है। दूसरी ओर जब भीतर का अनुभव स्थायी हो गया हो तो मन में वेग नहीं उठता और अब स्थायी ऊर्जा को गतिमान बनाना है तो गद्य का जन्म होता है। भीतर एक स्थिरता है, शांति है और भाव भी शांत हो गये हैं। कौतूहल अब पहले की तरह ज़मीन से उखाड़ नहीं देता आकाश में उड़ने के लिए, इसलिए शब्द थम- थम कर आते हैं।
बहुत ही सही बात कही आपने
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा आलेख👌
स्वागत व आभार मनीषा जी!
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