Friday, April 2, 2021

चिर वसन्त की चाह जिसे है

 साधना में कुछ पाना नहीं है, खोना है. तन, मन दोनों से पसीना बहाकर विषैले तत्वों को बाहर निकालना है. जीवन एक पुष्प की तरह खिले इसके लिए मन की माटी में भक्ति का बीज बोना होगा, श्रद्धा का बीज, आस्था का बीज, जो धीरे-धीरे जड़ें फैलाएगा और स्वार्थ के सारे कूड़े-करकट को खाद बनाकर उसे सुंदर आकार, रंग और गन्ध में बदल देगा. धरती में वह क्षमता है , वैसे ही मन की माटी में भी. हम जो भी सच्चे मन से चाहते हैं वह हमें दिया ही जाता है. यहां कोई पुकार कभी व्यर्थ नहीं जाती. सुख उत्तेजना का नाम है या आसक्ति का, दुःख द्वेष का नाम है अपनी इच्छा पूरी न होने का. आनंद तो एक विशेष मन:स्थिति है जो किसी बाहरी वस्तु, व्यक्ति या घटना पर आधारित नहीं है. वह तो सदा ही एक रस है. साधक को जब अपनी निर्विकार स्थिति का भान होता है, तभी आनंद का अनुभव होता है. हम जो भी देखते हैं वह हमसे बाहर है, यदि हमें स्वयं को देखना हो तो कैसे देखेंगे ? पतंजलि कहते हैं जब देखे हुए और सुने हुए के प्रति आकर्षण न रहे तब चेतना स्वयं में लौट आती है, तब स्वयं के द्वारा ही स्वयं को देखा जाता है. तब साधक के जीवन में चिर बसंत का पदार्पण होता है


5 comments:

  1. बहुत बहुत आभार !

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  2. सार्थक सृजन 👌

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  3. तब स्वयं के द्वारा ही स्वयं को देखा जाता है. तब साधक के जीवन में चिर बसंत का पदार्पण होता है!
    बहुत सुंदर बात कही ऋषि पतंजली ने | बहत ज्ञानवर्धक लेख | शुभकामनाएं अनीता जी | सदर

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    1. स्वागत व आभार रेणु जी !

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