नारद भक्ति सूत्र के आधार पर प्रेम की व्याख्या करते हुए गुरूजी कहते हैं, प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता, वह भाव से भी परे है। भावुकता प्रेम नहीं है, भीतर की दृढ़ता ही प्रेम है, सत्यप्रियता ही प्रेम है और असीम शांति भी प्रेम का ही रूप है. भीतर ही भीतर जो मीठे झरने सा रिसता रहता है वह भी तो प्रेम है. प्रभु हर पल प्रेम लुटा रहे हैं. तारों का प्रकाश, चाँद, सूर्य की प्रभा, पवन का डोलना तथा फूलों की सुगंध सभी तो प्रेम का प्रदर्शन है. प्रकृति प्रेम करती है, घास का कोमल स्पर्श और वर्षा की बूंदों की छुअन सब कुछ तो प्रेम ही है. वृद्ध की आँखों में प्रेम ही झलकता है शिशु की मुस्कान में भी प्रेम ही बसता है. प्रेम हर प्राणी का स्वभाव है और प्रेम से ही वे बने हैं. प्रेम ही ईश्वर है !
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