अनंत काल से यह सृष्टि चल रही है, लाखों मानव आये और चले गये, कितने नक्षत्र बने और टूटे. कितनी विचार धाराएँ पनपी और बिखर गयीं. कितने देश बने और लुप्त हो गये. इतिहास की नजर जहाँ तक जाती है सृष्टि उससे भी पुरानी है, फिर एक मानव का सत्तर-अस्सी वर्ष का छोटा सा जीवन क्या एक बूंद जैसा नहीं लगता इस महासागर में, व्यर्थ की चिंताओं में फंसकर वह इसे बोझिल बना लेता है. हर प्रातः जैसे एक नया जन्म होता है, दिनभर क्रीड़ा करने के बाद जैसे एक बालक निशंक माँ की गोद में सो जाता है, वैसे ही हर जीव प्रकृति की गोद में सुरक्षित है. यदि जीवन में एक सादगी हो, आवश्यकताएं कम हों और हृदय परम के प्रति श्रद्धा से भरा हो तो हर दिन एक उत्सव है और हर रात्रि परम विश्रांति का अवसर ! हर बार नया वर्ष आकर हमें इस सत्य से अवगत कराता है कि जीवन का लक्ष्य भीतर के आनंद को पाना और उसे जगत में लुटाना मात्र है।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(2-1-22) को २0२२ कहता है २०२२(चर्चा अंक4297)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
आदरणीया अनिता जी, नमस्ते👏! आपको सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteविधेयात्मक चिंतन धारा को विकसित करने का संदेश देती सार्थक रचना! साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
स्वागत व आभार!
Deleteमाया मोह कहाँ छोड़ पाता है इंसान,, जब तक उसे जीवन की समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है फिर पछतावे के सिवाय कुछ नहीं रहता पाता उसके ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी विचार चिंतन
स्वागत व आभार!
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