जैसा हमारा ज्ञान होता है, वह निर्धारित करता है कि हम क्या हैं ? यह जगत एक परिधि है और आत्मा उसके केंद्र पर है। हमें दोनों जगह रहना होता है। जितना हम केंद्र की तरफ जाते हैं, मन शांत होता है। विचारों के पार जाकर ही सत्य की अनुभूति होती है। एक महाज्ञान पूर्ण सत्ता के रहते हुए भी हम अज्ञानी का सा व्यवहार क्यों करते हैं, क्योंकि हमें पूर्ण स्वतंत्रता है अपने को किधर ले जायें। ‘मैं’ प्रकृति और चेतन के सम्मिलित रूप का प्रतीक है। इस सम्मिलित रूप में जितना-जितना चेतनता का ज्ञान बढ़ता जाता है, ‘मैं मुक्ति की तरफ बढ़ता है। जब ‘मैं’ प्रकृति के साथ जुड़ा होता है तब सुखी-दुखी होता है। प्रकृति ज्ञान देने को तैयार है, बुद्धि प्रकृति है. बुद्धि जब अपने मूल से जुड़ती है, तब हम अपने मूल को पहचानते हैं. स्वयं की पहचान होने पर भीतर की सामर्थ्य का ज्ञान होता है. अज्ञान की स्थिति में हम स्वयं को असमर्थ समझते हैं।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (18-05-2021 ) को 'कुदरत का कानून अटल है' (चर्चा अंक 4069) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार !
Deleteबुद्धि और मन 'मैं'को घेर कर माया से बांधते है। इस बंधन के हटते ही वह अपने आत्म का परमात्म में विलय कर देता है। यही मोक्ष है। बहुत विचारोत्तेजक आलेख जीवन के दर्शन का अलख जगाता। अत्यंत आभार इतने सुंदर विचारों के दिग्दर्शन के लिए।
ReplyDeleteसुंदर प्रतिक्रिया से विषय को और स्पष्ट करने हेतु स्वागत व आभार !
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