नाम और रूप से यह सारा जगत बना है, आत्मा उनसे परे है. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर हमें आत्मपद से नीचे उतार देते हैं, हमारी गरिमा से हमें च्युत कर देते हैं. रूप के प्रति आसक्ति को ही काम कहते है. कामना जगते ही लोभ उत्पन्न होता है, इच्छित वस्तु न मिलने पर या मिलकर टिके न रहने पर क्रोध होता है. क्रोध से अच्छे-बुरे का विवेक जाता रहता है. इस मोह से बुद्धि का विनाश हो जाता है. मन पर मद यानि एक बेहोशी छा जाती है और तब भीतर द्वेष का जन्म होता है और सारा सुख-चैन क्षण भर में हवा हो जाता है. आनंद में बने रहना आत्मा के निकट रहना है और दुःख, चिंता में बने रहना आत्मा से दूर चले जाना है. आँखें, रूप को देखती हैं, दोनों ही प्रकृति के अंग हैं और तीन गुणों से निर्मित हैं. आँखों के पीछे मन देखकर प्रसन्न होता है, आत्मा भी यदि स्वयं को मन या आँखें अर्थात देह मानकर प्रसन्न होने लगे तो वह अपने पद से नीचे आ गया, वह साक्षी मात्र बना रहे, मन व आँखों को प्रसन्न देखकर उसी तरह प्रसन्न हो जैसे दादाजी अपने पुत्र को उसके पुत्र से खेलते हुए देखते हैं. आत्मा तो स्वयं ही आनंद स्वरूप है, उसे जगत से सुख लेने की क्या आवश्यकता है ? वह स्वयं को भूली हुई है इसलिए कामनाओं के वशीभूत होकर सुख-दुःख का अनुभव करती है. यही तो अज्ञान है, जिससे गुरू हमें दूर करना चाहते हैं. गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, भगवद्गीता का यह वाक्य तब समझ में आता है. प्रकृति ही प्रकृति के साथ खेल रही है, पुरुष की उपस्थिति में. उसकी उपस्थिति के बिना कुछ भी सम्भव नहीं, पर वह स्वयं में पूर्ण है यह मानते हुए लीला मात्र समझकर जगत को देखना है. जैसे रात का स्वप्न टूट जाता है वैसे ही दिन का स्वप्न भी मृत्यु के एक झटके में टूट जाने वाला है.
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
गहरा चिंतन...। प्रकृति से हम हैं और हमें उससे मिलकर जीना सीखना होगा...। बहुत अच्छा लेखन।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteवाह बेहतरीन
ReplyDeleteगीता का दर्शन आपने इन पंक्तियों में रख दिया है। साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
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