शास्त्रों में ईश्वर की तुलना आकाश से, आत्मा की सूर्य से, मन की चंद्रमा से और देह की पृथ्वी से की गई है। जिसमें सब कुछ टिका है, पर जो किसी पर आश्रित नहीं है, जब कुछ भी नहीं था तब भी जो था और कुछ नहीं होगा जो तब भी रहेगा वही आकाश है । जैसे कोई भव्य इमारत यदि खड़ी हो जाए तो आकाश की सत्ता जस की तस रहती है और गिर जाए तो भी कोई परिवर्तन नहीं होता। सूर्य के होने से ही धरती पर जीवन संभव है, इसी प्रकार आत्मा से ही देह में चेतनता है। जैसे चंद्रमा सूर्य के प्रकाश को ही परावर्तित करता है, मन, आत्मा का ही प्रतिबिंब है। मन बाहरी परिस्थितियों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। कभी कभी सूर्य के सामने बादल आ जाते हैं और धरती पर अंधकार छा जाता है। अहंकार ही वह बादल है जो देह को आत्मा के प्रकाश से वंचित रखता है। यदि मन सदा समता में रहे तो आत्मजयोति उसमें एक सी प्रकाशित होगी और देह भी उस ज्योति से वंचित नहीं होगी।
जिसमें सब है और जो फिर भी निर्लिप्त तो आकाश है बाहर भीतर हमारे भी तो आकाश है घट में आकाश ,आकाश में घट.
ReplyDeleteblog.blogspot.com
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26 -5-21) को "प्यार से पुकार लो" (चर्चा अंक 4077) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार !
Deleteअहा, सुन्दर विश्लेषण!
ReplyDeleteबहुत सुंदर वर्णन किया है आपने।
ReplyDeleteसमुचित विश्लेषण, कई तथ्यों को संशयमुक्त करता हुआ।
ReplyDeleteआप सभी सुधीजनों का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण
ReplyDeleteकोई भव्य इमारत यदि खड़ी हो जाए तो आकाश की सत्ता जस की तस रहती है और गिर जाए तो भी कोई परिवर्तन नहीं होता।
ReplyDeleteसुंदर उदाहरण। मन को साधना और सम रहना ही आनंद का मूल है।
गहन चिंतन ।
ReplyDeleteआध्यात्मिक विश्लेषण।
सुंदर सटीक ।
बहुत सुंदर लिखा आपने।