सन्त और शास्त्र बार-बार कहते हैं, जो सुख किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से हमें प्राप्त होता है, वह सीमित है तथा उसकी कीमत भी हमें चुकानी पड़ती है. हर सुख के पीछे उतनी ही मात्रा का दुःख छिपा है, जो देर-सबेर हमें सहन करना होगा. जो आज मित्र की तरह व्यवहार कर रहा है, वह कब क्रोध से भर जाये, कौन जानता है ? जो वस्तुएं आज हमारे पास हैं, जो व्यापार आज खड़ा किया है, उनके लिए कितना श्रम किया है. जो बगीचा आज बनाया है, उसको बनाते समय कितनी रातों की नींद गंवाई होगी. अब कुछ लोग जो यह बात समझते हैं, वे दुःख को दुःख नहीं मानते, सुख की प्राप्ति का एक साधन मानते हैं और हँसते-हँसते हर दुःख उठा लेते हैं, पर वे ये भूल जाते हैं जिसके लिए इतना श्रम कर रहे हैं वह सुख कितनी देर टिकेगा ? एक कीमती वस्तु या कोई आभूषण पाने के लिए श्रम किया पर जब मिल गया तो कुछ क्षण या कुछ दिन उसकी ख़ुशी मिली फिर तो वह तिजोरी में बन्द पड़ा है. उसकी सुध भी नहीं आती. यह सुख जो शर्तों पर टिका है, वह ऐसा ही होता है. आनंद जो बेशर्त है, वह असीम है. वह हमारा स्वभाव है, जब मन में कोई कामना न हो ऐसे किसी क्षण में वह सहज सुख भीतर ही भीतर रिसता है, पर हम उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते, हमारा ध्यान तो बाहरी संसार पर ही अटका रहता है.
यह सुख जो शर्तों पर टिका है, वह ऐसा ही होता है. आनंद जो बेशर्त है, वह असीम है. वह हमारा स्वभाव है, जब मन में कोई कामना न हो ऐसे किसी क्षण में वह सहज सुख भीतर ही भीतर रिसता है, पर हम उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते, हमारा ध्यान तो बाहरी संसार पर ही अटका रहता है. ---वाह सटीक व्याख्या है...अपना किया हुआ ही सच्चा सुख है, अपने सुख को आपने बखूबी समझाया है।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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