मन परमेश्वर की स्मृति में सहज रूप से लगा रहे, उसे लगाना न पड़े तो ही जानना चाहिए कि अंतर में प्रेम का अंकुर फूटा है. चारों ओर उसी परमात्मा का वैभव तो बिखरा है, उसी की सृष्टि का उपयोग हम करते हैं पर उसे भुला बैठते हैं. जबकि वह हर क्षण साथ है, दूर नहीं है. बस एक पर्दा है जो हमें उससे अलग किये हुए है. वह हर क्षण श्रद्धा का केंद्र बन सकता है, हर श्वास उसकी कृपा है. मन यदि हर क्षण उसी को अर्पित रहे तो इसमें कोई विक्षोभ आ भी कैसे सकता है. संसार की बातें उत्पन्न करने वाला भी वही है. यही आराधना ही राधा है, जिसके माध्यम से कृष्ण को पाया जा सकता है. वह आत्मा रूप में सबके भीतर है, जिसके प्रसाद के बिना मन आधार हीन होता है। बाहर का सुख टिकता नहीं, यह अनुभव बताता है. उस एक से प्रीति हो जाने पर परम सुख और सुविधा मिलती है वह कभी छूटती नहीं, अपने उच्च तत्व का साक्षात्कार करना यदि आ जाये तो देह के अस्वस्थ या मन के दुखी होने पर स्वयं को अस्वस्थ या दुखी मानना छूट जायेगा. जैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा. अँधेरी रात में एक ठूँठ को एक व्यक्ति चोर समझता है, दूसरा साधू और तीसरा रौशनी करके उसकी असलियत पहचानता है. हमें भी इस जगत की वास्तविकता को पहचानना है. न इससे आकर्षित होना है न ही द्वेष करना है. तभी हम मुक्त हैं.
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
ReplyDeleteजैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा. अँधेरी रात में एक ठूँठ को एक व्यक्ति चोर समझता है, दूसरा साधू और तीसरा रौशनी करके उसकी असलियत पहचानता है. हमें भी इस जगत की वास्तविकता को पहचानना है. न इससे आकर्षित होना है न ही द्वेष करना है. तभी हम मुक्त हैं.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा। हमें भी इस जगत की वास्तविकता को पहचानना है।
स्वागत व आभार!
Deleteबस इतना ही समझ आ जाए तो पार हो जाएं…बहुत अनुकरणीय पोस्ट👌
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