भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से स्वधर्म में स्थित होकर युद्ध करने के लिए कहते हैं. स्वधर्म यानि आत्मा का धर्म, प्रेम और शांति का धर्म ! हृदय में प्रेम रहे और अंतर की गहराई में स्थित शांति का अनुभव होता रहे, उसके बाद ही कोई जीवन के संघर्ष में बिना किसी भय के उतर सकता है. यदि भीतर क्रोध है और मन अशांत है तो जीवन का संघर्ष हम लड़े बिना ही हार सकते हैं. यदि लड़ते भी हैं तो हमारी आधी ऊर्जा अपने आपको संभालने में ही व्यय होती है. हम अपने जीवन में कई धर्म निभाते हैं, एक मानव का धर्म, नागरिक का धर्म, पुत्र या पिता का धर्म, पति या पत्नी, शिष्य या शिक्षक का अथवा अपनी आजीविका कमाते समय अधिकारी या कर्मचारी का धर्म. ये सभी धर्म कभी-कभी एकदूसरे के विरोधी हो सकते हैं. देश सेवा करते हुए कोई अपने परिवार के प्रति उपेक्षा कर सकता है. कोई अपने काम में इतना खो जाता है कि परिवार स्वयं को उपेक्षित महसूस करता है. किन्तु यदि कोई आत्मा के धर्म में स्थित रहकर इन्हें निभाये तो सभी धर्म स्वतः ही निभने लगते हैं. जीवन में प्रेम और शांति के फूल खिले हों तो कोई भी कर्म सहज होता है उसके लिए विशेष श्रम नहीं करना पड़ता. इसी कारण श्रीकृष्ण अर्जुन को योगी होने का उपदेश देते हैं.
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