आज तक हमने जो भी किया उसका फल तो हमें मिलने ही वाला है, वह हमारा भाग्य बन गया है जो एक न एक दिन सम्मुख आएगा, किन्तु इस क्षण के बाद हम मनसा, वाचा, कर्म जो भी करने वाले हैं, वह अभी हमारे हाथ में है. हम यदि चाहें तो अपने कर्मों के प्रवाह को शुभ की तरफ मोड़ सकते हैं और अपने भाग्य को अपने अनुकूल गढ़ सकते हैं. इसमें सबसे बड़ा सहायक है भीतर का अखण्ड विश्वास और सत्य को जानने का अभिलाषा. परमात्मा परम शुभता का प्रतीक है, वह शांति, आनंद और प्रेम का अनंत सागर है, यदि हम उसका स्मरण मात्र करते हैं तो अंतर को उतनी देर के लिए उसके गुणों से भर लेते हैं. धीरे-धीरे कर्मों को करते समय भी उसका स्मरण बना रह सकता है. मन क्रोध या लोभ का शिकार नहीं होता, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, दिखावे की अग्नि में नहीं जलता. सदा स्वयं को औरों से बेहतर बताने की संसारी प्रवृत्ति अपने आप छूटने लगती है. मन सात्विक बल और साहस से भर जाता है और पुराने किसी कर्म का प्रतिकूल फल आने पर भी वह भीतर समता भाव बनाये रखता है. उपासना ऐसा कर्म है जो करते समय व भविष्य में भी सुख से भर देने वाला है.
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