अहंकार
को प्रश्रय न ही मिले तो अच्छा है क्योंकि हमारी सारी साधना ही इस अहंकार को खत्म
करने की है. यदि साधना में सफल होने का अहंकार भीतर भर गया तो हम वहीं आ गये जहाँ
से चले थे. फिर हम सफल हुए यह भी एक भ्रम ही है, आत्मा के तल पर सभी सदा सफल हैं,
वहाँ पहुंच कर तो हम सारे संशयों से दूर हो जाते हैं, पर व्यवहार जगत में जब हमें
देह, मन, बुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है तब हम समता बनाये रख पाने में सदा ही सफल
होते हैं यह जरूरी तो नहीं. जरूरी यह है कि भीतर की शांति का बोध हमें हो जाये और
सजग होते ही हम उसकी शरण में चले जायें. वह शांति हमें परमात्मा से मिली है. संसार
रूपी धूप में जब खड़ा होना कठिन हो तब आत्मा की छाँव में लौट-लौट कर आना होता है
तभी भीतर शीतलता छाई रहेगी, ऐसी शीतलता जो अलौकिक है, प्रेम से पूर्ण है, दिव्य
है.
संसार रूपी धूप में जब खड़ा होना कठिन हो तब आत्मा की छाँव में लौट-लौट कर आना होता है तभी भीतर शीतलता छाई रहेगी, ऐसी शीतलता जो अलौकिक है, प्रेम से पूर्ण है, दिव्य है. ...
ReplyDeleteहम्म..
ReplyDeleteअहंकार को प्रश्रय न ही मिले तो अच्छा है क्योंकि हमारी सारी साधना ही इस अहंकार को खत्म करने की है. यदि साधना में सफल होने का अहंकार भीतर भर गया तो हम वहीं आ गये जहाँ से चले थे.
ReplyDeleteअहंकार तो ज्ञान का भी आवाजाही में फंसाये रहता है आभार आपकी टिप्पणियों का। हाँ राजस्थान में विवाह के मौकों पर घी कुंवार की विशेष तरी वाली बेहद तेज़ लाल मिर्ची सब्ज़ी बनती है। ड्रेस करके ऍलू वेरा को।
राहुल जी, देवेन्द्र जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !
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