Thursday, April 10, 2014

एक अनोखा खेल चल रहा

जनवरी २००६ 
ईश्वर की ओर चलना आरम्भ तो करें सारी सृष्टि सहायक हो उठती है. जो जगत का नियामक है, नियंता है, आधार है उसे अपना मान लें तो जगत का विरोध स्वतः समाप्त हो जाता है, भीतर यदि विश्वास हो तो सारे मार्ग सुगम हो जाते हैं. ईश्वर से की गयी कोई भी प्रार्थना विफल नहीं जाती, वह तत्क्ष्ण उत्तर देता है. वह जो हमारे भीतर है, साक्षी है, वह जो हमें हमसे भी अधिक जानता है. हम क्या हैं, उसी के अंश हैं, उसी ने हमें रचा है, कारीगर जैसे अपने खिलौने को जानता है वैसे ही ईश्वर हमारी रग-रग से वाकिफ है. जब हम सारा अहंकार ( अहंकार करने लायक कुछ भी नहीं है हमारे पास) उसकी शरण में जाते हैं तो वह जो पहले से ही हाथ फैलाये बैठा है, हमें स्वीकार लेता है. हम जैसे हैं वैसे ही. उसे हमसे कोई अपेक्षा नहीं, वह हमसे कोई शिकायत भी नहीं करता, लेकिन हम उसके पास जाने से डरते हैं, हमें स्वयं पर विश्वास नहीं है, उस पर भी विश्वास नहीं करते. न जाने कितने काल से हम यह खेल खेलते आये हैं, न जाने कितनी बार हम उसके द्वार पर जाकर लौट आये हैं. हम अपने हर दुःख के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं. यह जगत अद्भुत है, अद्भुत है ईश्वर की व्यवस्था भी, हम सत्य को जानते नहीं तभी व्यथा के शिकार होते हैं. सद्गुरु की कृपा से जब भीतर ज्ञान होता है, संशय मिट जाते हैं, मन खाली हो जाता है तब यह जीवन उत्सव बन जाता है. हर घड़ी, हर पल एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है. 

6 comments:

  1. ये जो नर-तन है न वह वस्तुतः 'नर्तन' है , चैतन्य जैसा ।

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  2. हम अपने हर दुःख के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं. यह जगत अद्भुत है, अद्भुत है ईश्वर की व्यवस्था भी, हम सत्य को जानते नहीं तभी व्यथा के शिकार होते हैं. सद्गुरु की कृपा से जब भीतर ज्ञान होता है, संशय मिट जाते हैं, मन खाली हो जाता है तब यह जीवन उत्सव बन जाता है.....
    सहमत हूँ आपकी बातों से...

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, शनिवार, दिनांक :- 12/04/2014 को "जंगली धूप" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1580 पर.

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  4. ये खेल भी बंद आँखों से खेला जाता है...

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  5. शकुंतला जी, राहुल जी, राजीव जी, देवेन्द्र जी व वाणभट्ट जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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