हमें अपनी निजता को खोजना है, यह अहंकार नहीं है, अस्मिता है, अपने भीतर एक केंद्र को खोजना है जो बाहरी किसी भी प्रभाव से अछूता रहता है। यह एक चट्टान की तरह कठोर है। जिस पर धूप, पानी, अग्नि और हवाएं भी अपना प्रभाव नहीं डालतीं और उस फूल की तरह कोमल भी जो अपनी सुगंध और रूप से सभी का मन मोह लेता है. यह अपना होनापन किसी के विरुद्ध नहीं है, यह मानव होने की पहचान है. यह विवेक की उस अग्नि में तपकर मिलती है जो नित्य और अनित्य का भेद करके व्यर्थ को जला देती है और ऐसा कुछ शेष रह जाता है जो कभी जल ही नहीं सकता, यह उस भरोसे से पैदा होता है जिसके सामने सारा ब्रह्मांड भी खड़ा हो जाए तो वह टूटता नहीं। जो श्रद्धा छोटी-छोटी बात पर खंडित होती हो वह निजता तक नहीं ले जा सकती। जब इस जगत में कुछ भी पाया जाने जैसा न लगे और साथ ही हर वस्तु अनमोल भी प्रतीत हो क्योंकि वह उसी एक स्रोत से उपजी है, तब जानना चाहिए कि भीतर निजता का फूल खिला है। अब जगत एक क्रीड़ास्थली बन जाता है जहाँ अन्य लोग मात्र खिलाड़ी हैं और खेल में तो हार-जीत होती ही रहती है।सुख की चाह तब बाँधती नहीं क्योंकि सुख हमारा स्वभाव है यह ज्ञान हो जाता है।
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