किसी न किसी रूप में प्रेम का अनुभव सभी को होता है, पर उसे शाश्वत बनाने की कला नहीं आती । यह कला तो कोई सद्गुरू ही सिखाते हैं।अध्यात्म ही वह साधन है जिसे अपना कर मन में प्रेम का अखंड दीपक जलाया जा सकता है। ऐसा प्रेम होने के लिए कोई अन्य सम्मुख हो, इसकी भी ज़रूरत नहीं, एक बार मन में प्रकट हो जाये तो सारी सृष्टि के प्रति और उसके आधार परम परमात्मा के प्रति वह सहज ही बहता है। इस प्रेम में प्रतिदान की आशा भी नहीं होती, केवल देने का भाव ही रहता है। संसारी प्रेम में पीड़ा है, ईर्ष्या है, चाह है, अधिकार की भावना है, जो प्रेम के शुद्ध स्वरूप को विकृत कर देती है, आध्यात्मिक प्रेम स्वयं को स्वयं तृप्त करता है इसलिए इसमें मिली पीड़ा भी आनंदकारी होती है, मीरा के ह्रदय की पीड़ा उसके गीतों में ढलकर अमर हो जाती है।तुलसी के प्रेम का बिरवा मानस के रूप में युगों युगों तक मानव को सुवास देता रहेगा।टैगोर के प्रेम गीत उसी अमर प्रेम के चिह्न हैं।
प्रभु से जब लग्न लग गई तो फिर किसी और प्रेम की चाह ही नहीं रहेगी, सुन्दर अभिव्यक्ति अनीता जी 🙏
ReplyDeleteस्वागत व आभार कामिनी जी !
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 14 फरवरी 2024को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बहुत बहुत आभार पम्मी जी !
Deleteप्रेम बना रहे | जहां है वहां भी जहां नहीं है वहां भी |
ReplyDeleteसुंदर बात, स्वागत व आभार जोशी जी !
Deleteप्रेम सदैव आत्मा को पवित्रता करता है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचार अनिता जी।
सस्नेह।
स्वागत व आभार श्वेता जी !
Deleteबहुत बढ़िया और भावपूर्ण लेख अनीता जी! सच में अत्यधिक अधिकार प्रेम को विकृत कर देता! ये उन्मुक्त उड़ने वाला पाखी है!जिसने उन्मुक्त प्रेम को जीया वह अमर हो गया 🙏
ReplyDeleteआपने सही कहा है, प्रेम तो मुक्ति का मार्ग है, आभार !
Deleteबधाई और शुभकामनायें. अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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