मार्च २००५
विपशना
ध्यान बहुत सरल है. श्वासों को आते-जाते देखना, फिर धीरे-धीरे देह में होने वाले
ऊर्जा प्रवाह को देखना. तरंगो को उत्पन्न होते फिर नष्ट होते देखना. कोई विचार उठा
नहीं कि भीतर उसके सापेक्ष कोई संवेदना
जगी. कोई दुखद बात सुनी कि भीतर एक विषैला प्रवाह दुःख का दौड़ने लगता है, जैसे ही
पता चला वह खबर असत्य थी, परिवर्तन होने लगता है लेकिन उस विष का प्रभाव तो देह को
झेलना ही पड़ा. हम यदि मोह छोड़कर जगत में रहें तो दुःख को टिकने की जगह ही न मिले.
इन विकारों का जन्म हमारे ही भीतर होता है क्योंकि घटनाएँ तो हर क्षण संसार में हो
रही हैं, हमें वही प्रभावित करती हैं जिनसे हम मोह से बंधे हैं. यदि मन सुख-दुःख के प्रति निरपेक्ष रहे, प्रतिक्रिया
न करे तो भीतर ऊर्जा व्यर्थ नहीं होगी. जो क्रोध हमें भीतर जलाता है वही हम बाहर
अन्यों पर कर सकते हैं. हमारी चेतना सुप्त ही रहती है जब हम अहंकार वश जीवन में
होने वाली घटनाओं का सूत्रधार बनना चाहते हैं. सभी कुछ घटित हो रहा है, हम साक्षी
हैं.
बहुत खूब,सुंदर विचार !
ReplyDeleteRECENT POST : हल निकलेगा
हमारी चेतना सुप्त ही रहती है जब हम अहंकार वश जीवन में होने वाली घटनाओं का सूत्रधार बनना चाहते हैं. सभी कुछ घटित हो रहा है, हम साक्षी हैं.
ReplyDeleteनाद (ध्वनि ),शब्द और रूप ही संसार को चलाये हैं। हम स्वयं को करता मान रावणत्व को प्राप्त होतें हैं। निमित्त बन कर्म करना ही उससे कनेक्ट रहते हुए ही कर्म योग है।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ,
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं। (मानस).
बहुत बढ़िया मनुष्य को ऊर्ध्वगामी बनाने वाली पोस्ट।
मोह माया त्याग करना ही तो बहुत कठिन है। अपनी इन्द्रियों और भावनाओं को बांध कर रखना बहुत ही मुश्किल काज है… जिसने यह कर लिया, मानो जीवन-युद्ध जीत गया।
ReplyDeleteसुन्दर लेख अनीता जी
अपर्णा जी, परमात्मा को पाना है तो कठिन काम करना ही पड़ेगा..उसकी शक्ति से सरल भी हो जाता है..
Deleteधीरेन्द्र जी व वीरू भाई, स्वागत व आभार !
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