फरवरी-२००५
‘उपवास’ का अर्थ है ईश्वर के निकट वास
करने का दिन, अपने आप में रहने का दिन, एकत्व को अनुभव करने का दिन, इसको अनुभव के
स्तर पर जीने का दिन, जहाँ कोई भेद न हो वहाँ शांति होती है, जहाँ दो हुए वहाँ से
दुखों का आरम्भ होता है. शांति से सामर्थ्य का जन्म होता है तब जो कर्म हम करते
हैं वे बांधते नहीं. प्रकृति के गुण गुणों में बरत ही रहे हैं, इन्द्रियां अपने
सहज स्वाभाविक धर्म के अनुसार कार्य कर रही हैं, हम शुद्ध, बुद्ध निर्मल ऊर्जा के पुंज
हैं, यह भाव आज के दिन तो होना चाहिए और यही सत्य है. हम स्वयं ही असत्य के पीछे
दौड़ते हैं,, फिर धोखा खाने पर दुखी होने का नाटक करते हैं, इसलिए इस जगत को माया
जाल कहा गया है. यहाँ मानव स्वयं ही जाल बनाता है, उसमें फंसता है फिर छूटने का
प्रयत्न करते हुए स्वयं को अपनी वीरता पर शाबाशी अथवा तो अपनी निरीहता पर संवेदना
देता है. स्वयं पर दया दिखाता है या कठोर होता है, जबकि सारा खेल उसी का रचा हुआ
है. इसी खेल को खेलते–खेलते कितनी सदियाँ कितने जन्म गुजर जाते हैं.
hhmmm... so true
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