फरवरी २००५
हमारा अंतर्मन अथवा तो अंतःकरण हर क्षण
निर्मित होता रहता है, शरीर पर होने वाली सूक्ष्म संवेदनाओं को ग्रहण करता हुआ यह
कभी राग जगाता है, तो कभी द्वेष जगाता है. पल-पल हम संस्कार एकत्र करते जाते हैं,
कर्मों के बीज बोते जाते हैं. ध्यान में हमारे संस्कार शुद्ध होते हैं कुछ व्यर्थ
के संस्कार नष्ट भी होते हैं. पुनः हमें संसार में आना है, नये-नये संस्कार बनेंगे,
पर जब हम सजग रहते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितयों में सम रहते हैं, अंतःकरण का
निर्माण हमारे ही हाथों में रहता है. इसी पर हमारा भविष्य टिका है.
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