मार्च २००५
किस तरह स्वयं को जगत के
लिए उपयोगी बना सके, साधक को इसका भी ध्यान रखना चाहिए. एकांत साधना आरम्भ में तो ठीक
है, जब नये-नये अनुभव होते हैं तो लगता है, एकमात्र उसे ही ईश्वर की कृपा का
प्रसाद मिला है, पर नजरें उठाकर देखें तो पता चलता है, सृष्टि के आदि से अनेकों सन्त-महात्मा
साधक हो गये, अभी भी हजारों-लाखों हैं, ईश्वर को पाना ही स्वाभाविक है, क्योकि वह कभी
खोया ही नहीं था बल्कि उसे भूल जाना ही असम्भव है. साधना का लक्ष्य है कृपा का
अनुभव और जब ऐसा लगने लगे तो स्वयं को लुटा देना चाहिए, जितनी-जितनी सेवा हो सके
करनी चाहिए. यह जगत उससे अलग नहीं, जगत की अच्छाई-बुराई सब उसी से है. तीनों गुणों
से बंधी प्रकृति के कारण प्राणी अपना-अपना कार्य कर रहे हैं, जो इस बंधन को काट
सके वही साधक है. साक्षी भाव से तब वह इस व्यापर को देखता है, उससे लिप्त नहीं
होता.
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