फरवरी २००५
प्रभु !
तू याद आता क्यों नहीं है
इस दिल में समाता क्यों
नहीं है
हमारी सोच ‘मैं’ से
शुरू होती है और ‘मैं’ पर खत्म भी होगी. हम जो भी कर्म कर रहे होते हैं चाहे वे
अपने लिए हों या दूसरों के लिए, ‘मैं’ की धुरी के इर्द-गिर्द ही होते हैं.
अस्तित्त्व से जुड़े बिना हमारे कार्यों, वाणी तथा विचारों में गहराई नहीं आती, हम
सतही स्तर पर ही जीवन जिए चले जाते हैं, पर जब हम अपने भीतर की सत्यता का अनुभव
करते हैं तो हमारा ‘मैं’ जो पहले संकीर्ण था, अब सब कुछ उसमें समा जाता है, जीवन
जैसा आता है उसे वैसा स्वीकारने की क्षमता पैदा होती है. हमारे ‘स्व’ का विस्तार
होता है, सभी के भीतर उसी एक अस्तित्त्व का दर्शन हमें होता है.
अरुन जी, आभार !
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteHow to repair window 7 and fix corrupted file without using any software