फरवरी २००५
देह हमारा अन्नमय कोष है, स्थूल है,
जिसका अस्तित्त्व है, सत्ता है पर इसमें गति नहीं है. यह जड़ है. फिर आता है
प्राणमय कोष, जिसमें सत्ता भी है गति भी है. मनोमय कोष में सत्ता, गति के साथ
ज्ञान भी है. विज्ञान मय कोष में व्यक्तित्व भी समा जाता है. पांचवा है आनन्दमय
कोष और उसके परे है शुद्ध बोध, जहाँ हमें जाना है. एक-एक करके हमें इन पाँचों
आवरणों को भेदना है. संसार
की सत्ता हमारे मनोराज्य के कारण ही है, जिस क्षण जैसा विचार, भाव अथवा शब्द उठता
है संसार उस क्षण वैसा ही रूप धारण कर लेता है. मन यदि ठहर जाये तो यह दौड़ थम जाती
है.
बेहद मार्मिक और गहरी बात..जो अध्यात्म की तह में से स्फुटित हुई है।।।
ReplyDeleteअंकुर जी, स्वागत व आभार !
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