फरवरी २००५
जब तक हम देहात्म बुद्धि से जगत में
रहते हैं, मन पर एक बोझ पड़ा ही रहता है, यह बोझ ‘मैं’ का है, ‘मैं’ जो अपने को
कल्पनाओं के अनुसार एक पहचान दे देता है. बाहर जो दीखता है वह जगत बंधन का कारण
नहीं है, बल्कि हमारी कल्पनाओं द्वारा गढ़ा गया संसार ही बंधन का कारण है. जब मन
सारी, उपाधियों, कल्पनाओं, वासनाओं से खाली हो जाता है, तभी देहातीत का अनुभव होता
है, तब हम स्वालम्बी हो जाते हैं, अपनी ख़ुशी के लिए संसार के आश्रित नहीं रहते,
जगत तो अपनी प्रकृति के अनुसार पल-पल बदल रहा है, पर हम ‘वह’ हैं जो कभी नहीं
बदलता.
kitni sunder baat .
ReplyDeleteaabhar Anita ji .
sachhi baat hai ji
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [16.09.2013]
ReplyDeleteचर्चामंच 1370 पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
सादर
सरिता भाटिया
सरिता जी, बहुत बहुत आभार!
Deleteशुक्रिया आपकी स्नेह पूर्ण टिप्पणियों का। आप लोगों के लिए ही लिखा जा रहा है गीता भावार्थ।
ReplyDeleteमनमनाभव मामेकम शरणम् गच्छ। ज्योति (आत्मा )परम -ज्योति (परमात्मा )को तभी प्राप्त होगी जब हम खुद को शरीर समझे जाने की भूल से बाहर आयेंगे।सामान चीज़ ही परस्पर कनेक्ट होती हैं।
मैं शरीर नहीं हूँ। ये शरीर मेरा है। ये हाथ मेरा है मैं हाथ नहीं हूँ। ये घर मेरा है मैं घर नहीं हूँ। मैं देही हूँ ,रथी हूँ रथ नहीं हूँ। ड्राइवर हूँ गाड़ी नहीं हूँ।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपका पूरा ब्लॉग ही आध्यात्मिक है
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteजंगल की डेमोक्रेसी
बहुत सुंदरता से मन के बंधन से बाहर आने का अर्थ समझाया है ... आभार ...
ReplyDeleteअनुपमा जी, वीरू भाई, सरिक जी, लक्ष्मण जी, सैनी जी, दिगम्बर जी, उपासना जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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