देहात्म बुद्धि में यदि हम रहते हैं तो
जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, भूख-प्यास को सहना ही पड़ेगा. देह यानि हमारा अन्नमय कोष जो
अन्न से बना है, जन्म लेता है व मृत्यु को प्राप्त होता है, नष्ट होकर अन्न ही हो
जाता है. प्राणमय कोष वायु पर आधारित है जो भूख-प्यास सहता है, प्राण न रहें तो
देह को भूख-प्यास का अनुभव नहीं होगा. मनोमय कोष वृत्तियों को धारण करता है, तथा
सुख—दुःख का भागी होता है, वृत्तियाँ ही इसका भोजन हैं. विज्ञानमय कोष हमारे
व्यक्तित्व का निर्माण करता है. उससे भी परे है आनन्दमय कोष, जो इन सभी को
अभिव्यक्ति प्रदान करता है. हम कार्य को तो देखते हैं कारण को नहीं खोजते, हमारी ‘मैं’
कारण शरीर से उठती है पर हम स्वयं को देह, मन, बुद्धि ही मानते रहते हैं, क्योंकि
वहाँ तक हमारी पहुंच नहीं है. उसके पार गये बिना आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता, और
आत्मवादी हुए बिना द्वन्द्वों के इस जगत से छूटना कठिन है. जैसे नारियल पक जाये तो
अपने आप छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही देह के भीतर रहता हुआ आत्मा जब देह, मन
बुद्धि से छूट जाता है, फिर अपनी ही गरिमा
में रहता है.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
ReplyDeleteसुन्दर तत्व ज्ञान।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - रविवार-8/09/2013 को
ReplyDeleteसमाज सुधार कैसे हो? ..... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः14 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
बहुत खूब अनीता जी ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनीता जी
ReplyDeleteतत्व ज्ञान से भरे हुए हैं डायरी के पन्ने। शुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का जो हमसे भी अध्यात्म पे लिखवा लेती हैं।
ReplyDeleteप्रतिभा जी, वीरू भाई, दर्शन जी, सतीश जी व मीना जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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