Wednesday, March 26, 2014

प्रज्ञा का इक दीप जला हो

अक्तूबर २००५ 
भारत की संस्कृति अद्भुत है, यह कहती है जब हम अपने स्वभाव में नहीं होते तब खंड-खंड होते हैं और जब कोई वस्तु या घटना हमें अपने स्वभाव में लौटा लती है तो वह हमें प्रिय हो जाती है. शास्त्र हमें वह कुंजी देते हैं जिनसे हम अपने आप में लौटते हैं. जब हम विकार ग्रस्त होते हैं तो स्वयं से दूर हो जाते हैं. कामनाओं की पूर्ति के अभाव में हम क्रोध का शिकार होते हैं, जब तक प्रज्ञा के द्वारा हमारा समाधान नहीं होता तब तक क्रोध नहीं जाता. जब तक अपेक्षाएं हैं तब तक हम क्रोध से मुक्त नहीं हो सकते, जब हम तृप्त हो जाते हैं तब इस जगत में पूर्ण शांति के साथ रह सकते हैं. तप, जप, स्मरण, वन्दन, अर्चन सारी साधनाओं का एक ही हेतु है कि अंत करण शुद्ध हो, पवित्र हो ताकि स्वभाव में टिकना सहज हो जाये.

5 comments:

  1. तप, जप, स्मरण, वन्दन, अर्चन सारी साधनाओं का एक ही हेतु है कि अंत करण शुद्ध हो, पवित्र हो ताकि स्वभाव में टिकना सहज हो जाये.

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  2. जब तक प्रज्ञा के द्वारा हमारा समाधान नहीं होता तब तक क्रोध नहीं जाता.

    तभी हम स्थितप्रज्ञ हो पते हैं ...!!

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  3. " शास्त्र हमें वह कुंजी देते हैं जिनसे हम अपने आप में लौटते हैं. "

    बढ़िया भाव विरेचन करती पोस्ट शुक्रिया आपकी सादर टिप्पणियों का।

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  4. " जहॉ दया तहॉ धर्म है जहॉ लोभ तहॉ पाप ।
    जहॉ क्रोध तहॉ काल है जहॉ क्षमा तहॉ आप ॥"
    कबीर

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  5. राहुल जी, अनुपमा जी, वीरू भाई व शकुंतला जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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