Wednesday, November 12, 2014

कोई नहीं वहाँ रहता अब

अप्रैल २००७ 
साधक का मन जब ख़ाली हो जाता है, कोई वस्तु नहीं मांगता, कुछ नहीं चाहता, जैसे यह है ही नहीं ! कुछ छूट भी  जाये तो भीतर एक कतरा भी न हिलता, कुछ हो तभी न हिलेगा, मन की गहराई में कुछ भी नहीं है वहाँ सब कुछ अचल है वहाँ कोई हलचल नहीं... वहां से केवल एक पुकार आती है कि कैसे इस जगत को कुछ दे दें, देने की बात ही अब प्रमुख है. प्रभु भी तो हर पल दे ही रहा है. अपना प्रेम, करुणा, और कृपा..सद्गुरु भी यही कर रहे हैं. साधक उनके जैसे बनने का प्रयत्न तो कर ही सकता है ! वह दे और बस ! एक क्षण भी वहाँ रुके नहीं, उस लेने वाले का आभार लेने के लिए बल्कि उसका आभारी हो कि वह वहाँ है ताकि उसके भीतर प्रेम जगे... न जाने कितने जन्मों से वह लेता आया है..अब और नहीं !


No comments:

Post a Comment