मई २००७
संत कहते हैं, चंड-मुंड,
मधु-कैटभ तथा शुंभ-निशुंभ, रक्त बीज सब हमारे भीतर हैं. हृदय और मस्तिष्क ही
चंड-मुंड हैं, अति भावुकता भी नहीं और अति बौद्धिकता भी नहीं, दोनों का संतुलित
मेल ही हमारे जीवन को सुंदर बनाता है. राग-द्वेष ही मधु-कैटभ हैं और उनसे मुक्ति
तब तक नहीं मिल सकती जब तक हमारी चेतना प्रेम में विश्राम न पा ले. जन्मों-जन्मों
के संस्कार जो रक्त-बीज रूप में हमारे भीतर पड़े हैं, उनसे भी तभी मुक्त हुआ जा
सकता है जब चेतना मुक्त हो. अभी तो तन, मन व चेतना तीनों एक-दूसरे से चिपके हुए
हैं, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपनी पीड़ा मान लेता है, एक को हर्ष हो तो दूसरा
उसे अपना हर्ष मान लेता है और होता यह है कि एक न एक को तो सुख-दुःख का अनुभव होता
ही है, तो हर वक्त बेचारी चेतना बस परेशान, दुखी या ख़ुशी में फूली हुई रहती है,
उसे कभी मन के साथ अतीत में जाकर पछताना पड़ता है तो कभी भविष्य में जाकर आशंकित
होना पड़ता है, वह कभी चैन से रह ही नहीं पाती, नींद में भी मन उसे स्वप्न की झूठी दुनिया
में ले जाता है.
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